शहर गाँव को खा जाता है धीरे-धीरे: आधुनिकता की यह चुपचाप होती जंग

शहर गाँव को खा जाता है धीरे-धीरे: आधुनिकता की यह चुपचाप होती जंग

शहर गाँव को खा जाता है धीरे-धीरे: आधुनिकता की यह चुपचाप होती जंग

कहते हैं - "शहर की चकाचौंध गाँव के सुकून को धीरे-धीरे लील रही है।"

आज भारत के गाँव, जो कभी आत्मनिर्भर, खुशहाल और प्राकृतिक जीवन के प्रतीक थे, वे शहरों की ओर बढ़ते विकास, तकनीक और लालच के कारण अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। आइए समझते हैं कि यह प्रक्रिया कैसे हो रही है और हम इसे संतुलित कैसे कर सकते हैं।

शहर गाँव को कैसे खा रहा है?

आर्थिक विस्थापन:

बड़े उद्योगों, फैक्ट्रियों और रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स के लिए जमीनों का अधिग्रहण हो रहा है। किसान कम मुआवजा पाकर कृषि से दूर हो रहे हैं। परंपरागत रोजगार के अवसर भी समाप्त होते जा रहे हैं।

संस्कृति का क्षरण:

गाँवों की बोली, रीति-रिवाज, और त्योहार अब केवल यादें बनती जा रही हैं। युवा पीढ़ी शहरों की जीवनशैली को अपनाने में गर्व महसूस कर रही है। इससे पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने में दरार आ रही है।

पर्यावरणीय असंतुलन:

खेती की जमीन पर कंक्रीट के जंगल खड़े हो रहे हैं। तालाब, जंगल और चरागाह नष्ट हो रहे हैं। भूजल स्तर गिर रहा है और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।

शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर पलायन:

बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए लोग गाँव छोड़कर शहरों का रुख कर रहे हैं। गाँवों में मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव है।

समाधान क्या हो सकता है?

इस समस्या का समाधान केवल विकास के संतुलन में छिपा है। हमें ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे गाँव भी आगे बढ़ें और शहरों का बोझ भी कम हो। सबसे पहले गाँवों में रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे। कृषि आधारित छोटे उद्योग, स्थानीय स्टार्टअप और लघु उद्योग (MSME) को बढ़ावा देना जरूरी है ताकि लोग अपने गाँव में ही काम पा सकें।

शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए डिजिटल क्लासरूम और ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से बच्चों को गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई का अवसर दिया जा सकता है। सरकार को गाँवों के स्कूलों में बेहतर सुविधाएँ और प्रशिक्षित शिक्षक भी उपलब्ध कराने चाहिए।

स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए टेलीमेडिसिन, मोबाइल क्लीनिक और अच्छे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र गाँवों तक पहुँचने चाहिए। इससे छोटे-छोटे इलाज के लिए लोगों को शहरों का रुख नहीं करना पड़ेगा।

गाँव की सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए पारंपरिक मेले, त्योहार, कला और शिल्प को बढ़ावा देना चाहिए। इससे न केवल परंपराएँ जीवित रहेंगी बल्कि पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी सहारा मिलेगा।

तकनीक का भी सही उपयोग करते हुए स्मार्ट विलेज मॉडल को अपनाया जा सकता है, जहाँ आधुनिक तकनीक के साथ गाँवों में बेहतर बिजली, पानी, इंटरनेट और परिवहन की व्यवस्था हो।

निष्कर्ष

शहर और गाँव के इस असंतुलन को यदि समय रहते नहीं सुधारा गया तो आने वाले वर्षों में भारत की आत्मा कहे जाने वाले गाँव केवल किताबों के पन्नों में रह जाएंगे। यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि इस सन्तुलन को बनाकर रखें।

📢 आप क्या सोचते हैं?

क्या आपके गाँव में भी यह बदलाव दिख रहा है? अपने विचार कमेंट में जरूर साझा करें।

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